जिन्हें नाज़ था हिंद पर वो कहां है...किसी पुरानी फिल्म का ये गाना है जो रब्बी शेरगिल ने अपने नए गाने में एकबार फिर इस्तमाल किया है। 61 साल की आज़ादी के बाद जब हमारे पास गर्व करने के लिए बहुत कुछ है। क्या एक लाइन अजीब सी आउटडेटेड नहीं लगती? हम न्यूक्लियर पावर हैं। हम कम्युनिकेशन क्रांति में विकसित देशों से कदम से कदम मिला कर चल रहे हैं। हमारा विकास दर भी बिल्कुल फिट है। हम शायद सुपर पावर बनने की राह पर हैं। बहुत कुछ है खुश होने को।
लेकिन, कभी-कभी कुछ ऐसा दिख जाता है, याद आ जाता है कि मन कहता है कि जिन्हें नाज़ था हिंद पर वो कहां हैं? अक्सर जब देर शाम दफ्तर से घर लौट रही होती हूं, दिल्ली के मूलचंद फ्लाईओवर के नीचे बत्ती लाल ही मिलती है। वहां पर एक छोटा सा बच्चा होता है। मुश्किल से छह-सात साल का होगा। आंखों में मासूमियत भी, कुछ खालीपन भी। बेला चमेली के फूलों की लड़ियां बेच रहा होता है। गाड़ियों के बंद शीशे पर अपनी छोटी छोटी उंगलियों से खटखटाता हुआ, मोलभाव करता हुआ। उस उम्र में जहां आम घरों में इस उम्र के बच्चों को शायद सड़क पर अकेले छोड़ने की कोई सोचेगा भी नहीं। लेकिन, इस छोटे से लड़के को अपना पेट भरना है। शायद मां-बाप और बाकी भाई-बहनों का भी। इसलिए रात के 9-10 बजे राजधानी दिल्ली की सड़क पर वो लाल बत्ती पर रुकने वाली गाड़ियों का इंतज़ार करता है। ना जाने कब तक।
सारे कानून, सारी नीतियां धरी रह जाती हैं। ये मासूम और इसके जैसे न जाने कितने बच्चे आपको सड़कों पर, ढाबों पर लोगों के घरों में भी जीने की कोशिश करते नज़र आएंगे। फिर कैसे न पूछूं जिन्हें नाज़ था हिंद पर वो कहां हैं?
22 सितंबर 1992। शाम 6 बजे। राजस्थान के छोटे से गांव में साथिन भंवरी देवी का पांच अगड़ी जाति के लोगों ने बलात्कार किया। उनकी मेडिकल जांच बलात्कार के ५२ घंटे बाद की गई। हर दबाव के बाद भी भंवरी निचली अदालत में केस लड़ती रही लेकिन जज ने फैसला दिया कि ऊंची जाति के लोग किसी निचली जाति की महिला का बलात्कार कर ही नहीं सकते। भंवरी आज भी उसी गांव में रहने को मजबूर है। गांव और परिवार की बिला वजह नफरत के बावजूद। उन्होंने हाई कोर्ट में अपील की है। उन्हें अभी तक सुनवाई की तारीख तक नहीं मिली है। आधे से ज़्यादा 2008 बीत चुका है। भंवरी का इंतज़ार न खत्म होने वाला बनता जा रहा है। क्या मांगा था उन्होंने? न्याय जो हर नागरिक का अधिकार है और थोड़ा सम्मान? हम उन्हें कुछ नहीं दे सके। क्यों न पूछूं जिन्हें नाज़ था हिंद पर वो कहां हैं?
आरक्षण के नाम पर धर्म के नाम पर बंटते जा रहे हैं हम। जो बरसों से साथ खेले, खाए, बड़े हुए उन्हें जाति और धर्म ने अलग कर दिया। मेरी एक बेहद करीबी सहेली थी। 11वीं में साथ ही कालेज में एडमिशन लिया था। पांच करीबी दोस्तों में से एक। हम पांचों को एक दूसरे की हर बात पता होती थी। घर की, पढ़ाई की और वो बातें जो सिर्फ सहेलियों को ही बता सकते हैं। ग्रेजुएशन के फाइनल साल में परीक्षा फीस भरने का नोटिस आया। पांच में से चार उस लाइन में खड़े थे और उस एक का इंतज़ार कर रहे थे कि पता नहीं कहां चली गई। आखिरी दिन है लेकिन वो नहीं आई। हमें लगा शायद बीमार हो। लेकिन दूसरे दिन वो आई जब आरक्षण के तहत कम फीस भरने वाली छात्राओं की तारीख तय थी। उस लाइन में कहीं खो जाने की कोशिश करती हुई खड़ी थी। हम में से किसी ने उसे नहीं बताया कि हमने उसे दूसरे दिन लाइन में देखा था। इसलिए नहीं कि हमें इस बात से कोई आपत्ति थी पर इसलिए कि उसने हमें बताने लायक नहीं समझा। ये बात बेहद चुभी कि उसे इस मामले में हमारी दोस्ती पर भरोसा नहीं हुआ। कैसे पड़ गई रिश्तों में दरार। कहीं से तो आया होगा। किसी ने तो हमारे बीच एक लकीर खींची होगी। किसी ने नहीं समझाया होगा कि वो हम से अलग है। जब दोस्ती, रिश्तों के बीच ये लकीरें खींची जा रही हों तो कैसे न पूछूं कि जिन्हें नाज़ था हिंद पर वो कहां हैं?
Thia is a article written by kadambini Sharma from NDTV india ….post your viewon it.
Friday, September 26, 2008
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1 comment:
bahut achcha laga post pad kar
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