अम्मा : एक कथा गीत
थोड़ी थोड़ी धूप निकलती थोड़ी बदली छाई है
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!
शॉल सरक कर कांधों से उजले पाँवों तक आया है
यादों के आकाश का टुकड़ा फटी दरी पर छाया है
पहले उसको फ़ुर्सत कब थी छत के ऊपर आने की
उसकी पहली चिंता थी घर को जोड़ बनाने की
बहुत दिनों पर धूप का दर्पण देख रही परछाई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!
सिकुड़ी सिमटी उस लड़की को दुनिया की काली कथा मिली
पापा के हिस्से का कर्ज़ मिला सबके हिस्से की व्यथा मिली
बिखरे घर को जोड़ रही थी काल चक्र को मोड़ रही थी
लालटेन-सी जलती-बुझती गहन अंधेरे तोड़ रही थी
सन्नाटे में गूँज रही वह धीमी-सी शहनाई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!
दूर गाँव से आई थी वह दादा कहते बच्ची है
चाचा कहते भाभी मेरी फूलों से भी अच्छी है
दादी को वह हँसती-गाती अनगढ़-सी गुड़िया लगती थी
छोटा मैं था- मुझको तो वह आमों की बगिया लगती थी
जीवन की इस कड़ी धूप में अब भी वह अमराई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!
नींद नहीं थी लेकिन थोड़े छोटे-छोटे सपने थे
हरे किनारे वाली साड़ी गोटे-गोटे सपने थे
रात रात भर चिड़िया जगती पत्ता-पत्ता सेती थी
कभी-कभी आँचल का कोना आँखों पर धर लेती थी
धुंध और कोहरे में डूबी अम्मा एक तराई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!
हँसती थी तो घर में घी के दीए जलते थे
फूल साथ में दामन उसका थामे चलते थे
धीरे धीरे घने बाल वे जाते हुए लगे
दोनों आँखों के नीचे दो काले चाँद उगे
आज चलन से बाहर जैसे अम्मा आना पाई है!
पापा को दरवाज़े तक वह छोड़ लौटती थी
आँखों में कुछ काले बादल जोड़ लौटती थी
गहराती उन रातों में वह जलती रहती थी
पूरे घर में किरन सरीखी चलती रहती थी
जीवन में जो नहीं मिला उन सबकी माँ भरपाई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!
बड़े भागते तीखे दिन वह धीमी शांत बहा करती थी
शायद उसके भीतर दुनिया कोई और रहा करती थी
खूब जतन से सींचा उसने फ़सल फ़सल को खेत खेत को
उसकी आँखें पढ़ लेती थीं नदी नदी को रेत रेत को
अम्मा कोई नाव डूबती बार बार उतराई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!
- सुधांशु उपाध्याय
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Monday, March 23, 2009
Monday, October 20, 2008
शॉट्स, बाइट्स, आतंकवाद और मैं.
वर्ष 2003 में, मैंने मुंबई में एक के बाद एक हुए धमाके, 2006 के ट्रेन धमाके फिर 2006 में ही मालेगांव और फिर उसके बाद का धमाकों का सिलसिला देखा है। बार-बार तबाही देखी है।
न सिर्फ हर बार मौत देखनी पड़ती है बल्कि उससे भी ज़्यादा दर्दनाक उन लोगों की कहानियां होती हैं जो इनसे बच तो जाते हैं लेकिन या तो बुरी तरह जलकर या फिर हाथ-पैर खोकर। और, फिर ऐसे में उनके परिवारवालों से बात करना। पूछें तो क्या पूछें?
सबसे ज़्यादा तो परेशानी इस बात की होती है कि हमारा मज़ाक उस एक लाइन के साथ बनाया जाता है कि आपको कैसा लग रहा है। खैर अब तो यह मज़ाक भी पुराना पड़ चुका है।
अहमदाबाद धमाकों में घायल हुए 6 साल के यश के बारे में जानने जब मैं पहुंचा तब वो सोया हुआ था। करीब 60 फीसदी जल चुका था। मेरे सामने उसे होश आया और जब वो उठा तो पहले अपने बड़े भाई के बारे में पूछा, फिर दर्द से कराहता हुआ पानी मांगने लगा। लेकिन, उसे कुछ भी खाने-पीने की मनाही थी।
उसके छोटे-छोटे हाथ जले हुए थे और उन पर फफोले पड़ चुके, उस दिन मैं भी रोया। हालांकि उस वक्त तक उसकी मां ने एक आंसू का बूंद नहीं बहाया था जबकि उसे पता था कि उसके दोनों बेटे बुरी तरह जले हुए है और पति धमाकों में मारा जा चुका है। यश का भाई भी दो दिन बाद चल बसा।
इस बीच, जांच कहां-कहां पहुंची इसकी पड़ताल करनी होती है। वहीं पुलिस जिन्हें हम गला फाड़-फाड़ कर निकम्मा कह रहे होते हैं, उन्हीं के अधिकारियों से विनम्रता के साथ पूछना होता है, कैसे हैं सर?
वो निकम्मा नहीं हैं, वो भी मेहनत कर रहे हैं। मैंने उनके चेहरे पर भी दर्द और हताशा देखी है। हर ऐसी वारदात उनके चेहरे पर थप्पड़ सा होता है। कई अधिकारियों से इतना तक कहा कि वो जांच में इसलिए मेहनत नहीं करना चाहते कि उन्हें कम्युनल न करार दे दिया जाए और फिर बाद में उन्हें इसकी सज़ा मिले। विडंबना यह भी है कि आला अधिकारी अपने खुद की राजनीति में फंसे हैं। एक विभाग दूसरे को नीचा दिखाने में लगा है।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि गिरफ्तारियों पर सवाल नहीं होना चाहिए। सवाल खड़े करना चाहिए। लेकिन, शायद कुछ, धीरज के साथ। यहां गिरफ्तारी हुई नहीं कि वहां सवाल शुरू हो गए। सवाल तो शहादत पर भी खड़े कर दिए गए हैं।
अगर, मैं धमाकों से किसी भी तरह जुड़ा नहीं होता तो शायद पुलिस के निकम्मेपन नेताओं की बयानबाज़ी और मीडिया की सनसनी भरी खबरों को गाली देता, लेकिन मैं एक रिपोर्टर हूं और चाहकर भी बातों से अपने आप को दूर नहीं कर सकता।
एकबार तो मांस के लोथड़े के बीच खड़ा था तब किसी दोस्त का फोन आया था। क्या हम खाने पर जा सकते हैं? मुझे याद है मैंने नीचे झुक कर उस लोथड़े को देखा और फिर अपने दोस्त से कहा कि वो खाना आफिस में मंगवा ले।
इस बार, जब दिल्ली में धमाके हुए तो मेरा बड़ा भाई वहीं था। उसने फोन पांचवें रिंग में उठाया और न जाने उतनी देर में मैंने क्या-क्या सोच लिया। वो ठीक है यह सोचकर राहत तो हुई लेकिन बाद में अपने स्वार्थ पर शर्म आई कि आखिर किसी और ने तो भी अपना कोई खोया है।
मैं जब भी ऐसे किसी हादसे की रिपोर्टिंग करने जाता हूं तो मेरे सामने बार-बार यह सवाल आता है, कि क्या मैं उन लोगों की मदद करूं जिन्हें उसकी ज़रूरत है या फिर रिपोर्टर बन कर अपना काम करूं।
क्योंकि, मुझे तो कहानियां तो देनी होती हैं, शॉट्स भेजने होते हैं, बाइट लेनी होती है और लाइव तो 'मिस' होना ही नहीं चाहिए।
This column is written by shalender mohan from NDTV and it’s my personal view that any one who belongs from media field should read it…
न सिर्फ हर बार मौत देखनी पड़ती है बल्कि उससे भी ज़्यादा दर्दनाक उन लोगों की कहानियां होती हैं जो इनसे बच तो जाते हैं लेकिन या तो बुरी तरह जलकर या फिर हाथ-पैर खोकर। और, फिर ऐसे में उनके परिवारवालों से बात करना। पूछें तो क्या पूछें?
सबसे ज़्यादा तो परेशानी इस बात की होती है कि हमारा मज़ाक उस एक लाइन के साथ बनाया जाता है कि आपको कैसा लग रहा है। खैर अब तो यह मज़ाक भी पुराना पड़ चुका है।
अहमदाबाद धमाकों में घायल हुए 6 साल के यश के बारे में जानने जब मैं पहुंचा तब वो सोया हुआ था। करीब 60 फीसदी जल चुका था। मेरे सामने उसे होश आया और जब वो उठा तो पहले अपने बड़े भाई के बारे में पूछा, फिर दर्द से कराहता हुआ पानी मांगने लगा। लेकिन, उसे कुछ भी खाने-पीने की मनाही थी।
उसके छोटे-छोटे हाथ जले हुए थे और उन पर फफोले पड़ चुके, उस दिन मैं भी रोया। हालांकि उस वक्त तक उसकी मां ने एक आंसू का बूंद नहीं बहाया था जबकि उसे पता था कि उसके दोनों बेटे बुरी तरह जले हुए है और पति धमाकों में मारा जा चुका है। यश का भाई भी दो दिन बाद चल बसा।
इस बीच, जांच कहां-कहां पहुंची इसकी पड़ताल करनी होती है। वहीं पुलिस जिन्हें हम गला फाड़-फाड़ कर निकम्मा कह रहे होते हैं, उन्हीं के अधिकारियों से विनम्रता के साथ पूछना होता है, कैसे हैं सर?
वो निकम्मा नहीं हैं, वो भी मेहनत कर रहे हैं। मैंने उनके चेहरे पर भी दर्द और हताशा देखी है। हर ऐसी वारदात उनके चेहरे पर थप्पड़ सा होता है। कई अधिकारियों से इतना तक कहा कि वो जांच में इसलिए मेहनत नहीं करना चाहते कि उन्हें कम्युनल न करार दे दिया जाए और फिर बाद में उन्हें इसकी सज़ा मिले। विडंबना यह भी है कि आला अधिकारी अपने खुद की राजनीति में फंसे हैं। एक विभाग दूसरे को नीचा दिखाने में लगा है।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि गिरफ्तारियों पर सवाल नहीं होना चाहिए। सवाल खड़े करना चाहिए। लेकिन, शायद कुछ, धीरज के साथ। यहां गिरफ्तारी हुई नहीं कि वहां सवाल शुरू हो गए। सवाल तो शहादत पर भी खड़े कर दिए गए हैं।
अगर, मैं धमाकों से किसी भी तरह जुड़ा नहीं होता तो शायद पुलिस के निकम्मेपन नेताओं की बयानबाज़ी और मीडिया की सनसनी भरी खबरों को गाली देता, लेकिन मैं एक रिपोर्टर हूं और चाहकर भी बातों से अपने आप को दूर नहीं कर सकता।
एकबार तो मांस के लोथड़े के बीच खड़ा था तब किसी दोस्त का फोन आया था। क्या हम खाने पर जा सकते हैं? मुझे याद है मैंने नीचे झुक कर उस लोथड़े को देखा और फिर अपने दोस्त से कहा कि वो खाना आफिस में मंगवा ले।
इस बार, जब दिल्ली में धमाके हुए तो मेरा बड़ा भाई वहीं था। उसने फोन पांचवें रिंग में उठाया और न जाने उतनी देर में मैंने क्या-क्या सोच लिया। वो ठीक है यह सोचकर राहत तो हुई लेकिन बाद में अपने स्वार्थ पर शर्म आई कि आखिर किसी और ने तो भी अपना कोई खोया है।
मैं जब भी ऐसे किसी हादसे की रिपोर्टिंग करने जाता हूं तो मेरे सामने बार-बार यह सवाल आता है, कि क्या मैं उन लोगों की मदद करूं जिन्हें उसकी ज़रूरत है या फिर रिपोर्टर बन कर अपना काम करूं।
क्योंकि, मुझे तो कहानियां तो देनी होती हैं, शॉट्स भेजने होते हैं, बाइट लेनी होती है और लाइव तो 'मिस' होना ही नहीं चाहिए।
This column is written by shalender mohan from NDTV and it’s my personal view that any one who belongs from media field should read it…
वाह इडॅया् वाह
महंगाई बढ़ी तो तेल के दामों की वजह से! बम फटे तो आतंकवाद की वजह से! सरकार बचे तो नोटों की वजह से! सरकारी काम हो जाए तो रिश्वत की वजह से! सरकारी काम ना हो तो भ्रष्टाचार की वजह से! स्टॉक़ मार्केट गिरे तो अमेरिकी मार्केट की वजह से!घर सस्ते होंगे तो ब्याज दरों की वजह से! घर महंगे होंगे तो जमीन के दामों की वजह से! फसल कम हुई तो बारिश की वजह से! ज्यादा हुई तो सब्सिडी की वजह से! गरीब है तो सरकारी नीतियों की वजह से!अमीर है तो अपनी मेहनत की वजह से! एक्सीडेन्ट हो जाए तो उसकी वजह से! मर गए तो डॉक़्टर की वजह से! बच गए तो भगवान की वजह से! प्रोमोशन हो जाए तो चमचागिरि की वजह से! नौक्ररी से निकाल दिए गए तो खुन्दक की वजह से! विधुर कि शादी हो जाए तो पैसों की वजह से! ना हो तो ऊम्र की वजह से!
हम लोगों के पास हर चीज की वजह है, नहीं है तो वजहों कि कोई वजह
हम लोगों के पास हर चीज की वजह है, नहीं है तो वजहों कि कोई वजह
Friday, September 26, 2008
जिन्हें नाज़ था हिंद पर वो कहां है...
जिन्हें नाज़ था हिंद पर वो कहां है...किसी पुरानी फिल्म का ये गाना है जो रब्बी शेरगिल ने अपने नए गाने में एकबार फिर इस्तमाल किया है। 61 साल की आज़ादी के बाद जब हमारे पास गर्व करने के लिए बहुत कुछ है। क्या एक लाइन अजीब सी आउटडेटेड नहीं लगती? हम न्यूक्लियर पावर हैं। हम कम्युनिकेशन क्रांति में विकसित देशों से कदम से कदम मिला कर चल रहे हैं। हमारा विकास दर भी बिल्कुल फिट है। हम शायद सुपर पावर बनने की राह पर हैं। बहुत कुछ है खुश होने को।
लेकिन, कभी-कभी कुछ ऐसा दिख जाता है, याद आ जाता है कि मन कहता है कि जिन्हें नाज़ था हिंद पर वो कहां हैं? अक्सर जब देर शाम दफ्तर से घर लौट रही होती हूं, दिल्ली के मूलचंद फ्लाईओवर के नीचे बत्ती लाल ही मिलती है। वहां पर एक छोटा सा बच्चा होता है। मुश्किल से छह-सात साल का होगा। आंखों में मासूमियत भी, कुछ खालीपन भी। बेला चमेली के फूलों की लड़ियां बेच रहा होता है। गाड़ियों के बंद शीशे पर अपनी छोटी छोटी उंगलियों से खटखटाता हुआ, मोलभाव करता हुआ। उस उम्र में जहां आम घरों में इस उम्र के बच्चों को शायद सड़क पर अकेले छोड़ने की कोई सोचेगा भी नहीं। लेकिन, इस छोटे से लड़के को अपना पेट भरना है। शायद मां-बाप और बाकी भाई-बहनों का भी। इसलिए रात के 9-10 बजे राजधानी दिल्ली की सड़क पर वो लाल बत्ती पर रुकने वाली गाड़ियों का इंतज़ार करता है। ना जाने कब तक।
सारे कानून, सारी नीतियां धरी रह जाती हैं। ये मासूम और इसके जैसे न जाने कितने बच्चे आपको सड़कों पर, ढाबों पर लोगों के घरों में भी जीने की कोशिश करते नज़र आएंगे। फिर कैसे न पूछूं जिन्हें नाज़ था हिंद पर वो कहां हैं?
22 सितंबर 1992। शाम 6 बजे। राजस्थान के छोटे से गांव में साथिन भंवरी देवी का पांच अगड़ी जाति के लोगों ने बलात्कार किया। उनकी मेडिकल जांच बलात्कार के ५२ घंटे बाद की गई। हर दबाव के बाद भी भंवरी निचली अदालत में केस लड़ती रही लेकिन जज ने फैसला दिया कि ऊंची जाति के लोग किसी निचली जाति की महिला का बलात्कार कर ही नहीं सकते। भंवरी आज भी उसी गांव में रहने को मजबूर है। गांव और परिवार की बिला वजह नफरत के बावजूद। उन्होंने हाई कोर्ट में अपील की है। उन्हें अभी तक सुनवाई की तारीख तक नहीं मिली है। आधे से ज़्यादा 2008 बीत चुका है। भंवरी का इंतज़ार न खत्म होने वाला बनता जा रहा है। क्या मांगा था उन्होंने? न्याय जो हर नागरिक का अधिकार है और थोड़ा सम्मान? हम उन्हें कुछ नहीं दे सके। क्यों न पूछूं जिन्हें नाज़ था हिंद पर वो कहां हैं?
आरक्षण के नाम पर धर्म के नाम पर बंटते जा रहे हैं हम। जो बरसों से साथ खेले, खाए, बड़े हुए उन्हें जाति और धर्म ने अलग कर दिया। मेरी एक बेहद करीबी सहेली थी। 11वीं में साथ ही कालेज में एडमिशन लिया था। पांच करीबी दोस्तों में से एक। हम पांचों को एक दूसरे की हर बात पता होती थी। घर की, पढ़ाई की और वो बातें जो सिर्फ सहेलियों को ही बता सकते हैं। ग्रेजुएशन के फाइनल साल में परीक्षा फीस भरने का नोटिस आया। पांच में से चार उस लाइन में खड़े थे और उस एक का इंतज़ार कर रहे थे कि पता नहीं कहां चली गई। आखिरी दिन है लेकिन वो नहीं आई। हमें लगा शायद बीमार हो। लेकिन दूसरे दिन वो आई जब आरक्षण के तहत कम फीस भरने वाली छात्राओं की तारीख तय थी। उस लाइन में कहीं खो जाने की कोशिश करती हुई खड़ी थी। हम में से किसी ने उसे नहीं बताया कि हमने उसे दूसरे दिन लाइन में देखा था। इसलिए नहीं कि हमें इस बात से कोई आपत्ति थी पर इसलिए कि उसने हमें बताने लायक नहीं समझा। ये बात बेहद चुभी कि उसे इस मामले में हमारी दोस्ती पर भरोसा नहीं हुआ। कैसे पड़ गई रिश्तों में दरार। कहीं से तो आया होगा। किसी ने तो हमारे बीच एक लकीर खींची होगी। किसी ने नहीं समझाया होगा कि वो हम से अलग है। जब दोस्ती, रिश्तों के बीच ये लकीरें खींची जा रही हों तो कैसे न पूछूं कि जिन्हें नाज़ था हिंद पर वो कहां हैं?
Thia is a article written by kadambini Sharma from NDTV india ….post your viewon it.
लेकिन, कभी-कभी कुछ ऐसा दिख जाता है, याद आ जाता है कि मन कहता है कि जिन्हें नाज़ था हिंद पर वो कहां हैं? अक्सर जब देर शाम दफ्तर से घर लौट रही होती हूं, दिल्ली के मूलचंद फ्लाईओवर के नीचे बत्ती लाल ही मिलती है। वहां पर एक छोटा सा बच्चा होता है। मुश्किल से छह-सात साल का होगा। आंखों में मासूमियत भी, कुछ खालीपन भी। बेला चमेली के फूलों की लड़ियां बेच रहा होता है। गाड़ियों के बंद शीशे पर अपनी छोटी छोटी उंगलियों से खटखटाता हुआ, मोलभाव करता हुआ। उस उम्र में जहां आम घरों में इस उम्र के बच्चों को शायद सड़क पर अकेले छोड़ने की कोई सोचेगा भी नहीं। लेकिन, इस छोटे से लड़के को अपना पेट भरना है। शायद मां-बाप और बाकी भाई-बहनों का भी। इसलिए रात के 9-10 बजे राजधानी दिल्ली की सड़क पर वो लाल बत्ती पर रुकने वाली गाड़ियों का इंतज़ार करता है। ना जाने कब तक।
सारे कानून, सारी नीतियां धरी रह जाती हैं। ये मासूम और इसके जैसे न जाने कितने बच्चे आपको सड़कों पर, ढाबों पर लोगों के घरों में भी जीने की कोशिश करते नज़र आएंगे। फिर कैसे न पूछूं जिन्हें नाज़ था हिंद पर वो कहां हैं?
22 सितंबर 1992। शाम 6 बजे। राजस्थान के छोटे से गांव में साथिन भंवरी देवी का पांच अगड़ी जाति के लोगों ने बलात्कार किया। उनकी मेडिकल जांच बलात्कार के ५२ घंटे बाद की गई। हर दबाव के बाद भी भंवरी निचली अदालत में केस लड़ती रही लेकिन जज ने फैसला दिया कि ऊंची जाति के लोग किसी निचली जाति की महिला का बलात्कार कर ही नहीं सकते। भंवरी आज भी उसी गांव में रहने को मजबूर है। गांव और परिवार की बिला वजह नफरत के बावजूद। उन्होंने हाई कोर्ट में अपील की है। उन्हें अभी तक सुनवाई की तारीख तक नहीं मिली है। आधे से ज़्यादा 2008 बीत चुका है। भंवरी का इंतज़ार न खत्म होने वाला बनता जा रहा है। क्या मांगा था उन्होंने? न्याय जो हर नागरिक का अधिकार है और थोड़ा सम्मान? हम उन्हें कुछ नहीं दे सके। क्यों न पूछूं जिन्हें नाज़ था हिंद पर वो कहां हैं?
आरक्षण के नाम पर धर्म के नाम पर बंटते जा रहे हैं हम। जो बरसों से साथ खेले, खाए, बड़े हुए उन्हें जाति और धर्म ने अलग कर दिया। मेरी एक बेहद करीबी सहेली थी। 11वीं में साथ ही कालेज में एडमिशन लिया था। पांच करीबी दोस्तों में से एक। हम पांचों को एक दूसरे की हर बात पता होती थी। घर की, पढ़ाई की और वो बातें जो सिर्फ सहेलियों को ही बता सकते हैं। ग्रेजुएशन के फाइनल साल में परीक्षा फीस भरने का नोटिस आया। पांच में से चार उस लाइन में खड़े थे और उस एक का इंतज़ार कर रहे थे कि पता नहीं कहां चली गई। आखिरी दिन है लेकिन वो नहीं आई। हमें लगा शायद बीमार हो। लेकिन दूसरे दिन वो आई जब आरक्षण के तहत कम फीस भरने वाली छात्राओं की तारीख तय थी। उस लाइन में कहीं खो जाने की कोशिश करती हुई खड़ी थी। हम में से किसी ने उसे नहीं बताया कि हमने उसे दूसरे दिन लाइन में देखा था। इसलिए नहीं कि हमें इस बात से कोई आपत्ति थी पर इसलिए कि उसने हमें बताने लायक नहीं समझा। ये बात बेहद चुभी कि उसे इस मामले में हमारी दोस्ती पर भरोसा नहीं हुआ। कैसे पड़ गई रिश्तों में दरार। कहीं से तो आया होगा। किसी ने तो हमारे बीच एक लकीर खींची होगी। किसी ने नहीं समझाया होगा कि वो हम से अलग है। जब दोस्ती, रिश्तों के बीच ये लकीरें खींची जा रही हों तो कैसे न पूछूं कि जिन्हें नाज़ था हिंद पर वो कहां हैं?
Thia is a article written by kadambini Sharma from NDTV india ….post your viewon it.
Tuesday, September 16, 2008
Indian Flag Burnt in Srinagar
This only happens in India!!!!
just see d pictures
really shame on indian media
who never shows these pic ..........
shame shame shame
Hosting Pakistani Flag and burning Indian Flag
A Kashmiri separatist leader burning the Indian Flag
This only happens in India!!!!
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shame shame shame
Hosting Pakistani Flag and burning Indian Flag
A Kashmiri separatist leader burning the Indian Flag
Monday, September 1, 2008
ब्रेकिंग न्यूज़, ताजा खबर... आखिर क्या है इनमें ब्रेकिंग और ताजा ?
आज की तारीख में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने अपने लिए एक अलग स्थान बना लिया है लोगों की ज़िन्दगी में। आज से कई वर्ष पहले जब टीवी न्यूज़ चैनलों की शुरुआत हुई थी, लोगों को लगा कि एक आधुनिक भारत की शुरुआत हुई है और इससे वे देश-दुनिया से जुड़े रहेंगे। तब से अब तक मीडिया ने बहुत बदलाव देखे हैं, लेकिन तब भी मीडिया का काम लोगों को जागरूक करना था और आज भी वे जागरूक ही करते हैं, लेकिन कुछ अलग अंदाज़ में।
आज की तारीख में न्यूज़ चैनलों ने ब्रेकिंग और ताजा खबरों को इस तरीके से तोड़-मरोड़कर परोसना शुरू कर दिया है, जिसका कोई हिसाब नहीं... मसलन, एक ताजा खबर दिखी - 2010 में धरती समाप्त हो जाएगी - क्या टीआरपी बढ़ाने के लिए लोगों को इस कदर भयभीत करना क्या उचित है... किसी न्यूज़ चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज़ चल रही थी - लादेन मारा गया - मैं चैनल बदलते-बदलते रुक गया की आखिर यह कैसे और कब हुआ... थोड़ी देर सुनने-देखने के बाद पता चला, लादेन किसी हाथी का नाम था। आखिर कब तक लोगों को बेवकूफ बनाते रहेंगे ये न्यूज़ चैनल।
कई चैनलों ने तो कॉमेडी को भी न्यूज़ का हिस्सा बना दिया है... और इतने बड़े स्तर पर कि कभी-कभी मुझे लगता है कि आने वाले वक्त में राजू श्रीवास्तव कोई नया चुटकुला बनाएगा तो वह ब्रेकिंग न्यूज़ न बन जाए इन चैनलों के लिए।
दूसरों की ज़िन्दगी में बिल्कुल घुस जाते हैं ये चैनल वाले। मेरा कहना है कि अगर कोई अभिनेता या राजनेता है, तो आपको क्या... उन्हें भी अपनी ज़िन्दगी जीने का हक है, आखिर वे भी इन्सान हैं। जब तक देश को या समाज को नुकसान नहीं पहुंचाया जा रहा हो, किसी की निजी ज़िन्दगी में नहीं झांकना चाहिए।
मुझे जो लगा, वह मैंने कह दिया। क्या आप लोगों को लगता है कि मैंने कुछ गलत कहा। मेरा किसी न्यूज़ चैनल या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से कोई बैर नहीं... और न ही इनके खिलाफ हूं, बस मुझे लगता है कि इन्हें ब्रेकिंग न्यूज़ या ताजा खबर परोसने का अंदाज़ मुख्तलिफ रखना चाहिए। मीडिया का काम लोगों को जागरूक करना है, उन्हें डराना नहीं... क्योंकि मीडिया जिस अंदाज़ में न्यूज़ परोसेगी, लोग उसी अंदाज़ में देखेंगे और अपनी ज़िन्दगी से जोड़ने की कोशिश करेंगे। वैसे आज भी कुछ न्यूज़ चैनल हैं, जो सचमुच लोगों को जागरूक करने का काम कर रहे हैं...
आज की तारीख में न्यूज़ चैनलों ने ब्रेकिंग और ताजा खबरों को इस तरीके से तोड़-मरोड़कर परोसना शुरू कर दिया है, जिसका कोई हिसाब नहीं... मसलन, एक ताजा खबर दिखी - 2010 में धरती समाप्त हो जाएगी - क्या टीआरपी बढ़ाने के लिए लोगों को इस कदर भयभीत करना क्या उचित है... किसी न्यूज़ चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज़ चल रही थी - लादेन मारा गया - मैं चैनल बदलते-बदलते रुक गया की आखिर यह कैसे और कब हुआ... थोड़ी देर सुनने-देखने के बाद पता चला, लादेन किसी हाथी का नाम था। आखिर कब तक लोगों को बेवकूफ बनाते रहेंगे ये न्यूज़ चैनल।
कई चैनलों ने तो कॉमेडी को भी न्यूज़ का हिस्सा बना दिया है... और इतने बड़े स्तर पर कि कभी-कभी मुझे लगता है कि आने वाले वक्त में राजू श्रीवास्तव कोई नया चुटकुला बनाएगा तो वह ब्रेकिंग न्यूज़ न बन जाए इन चैनलों के लिए।
दूसरों की ज़िन्दगी में बिल्कुल घुस जाते हैं ये चैनल वाले। मेरा कहना है कि अगर कोई अभिनेता या राजनेता है, तो आपको क्या... उन्हें भी अपनी ज़िन्दगी जीने का हक है, आखिर वे भी इन्सान हैं। जब तक देश को या समाज को नुकसान नहीं पहुंचाया जा रहा हो, किसी की निजी ज़िन्दगी में नहीं झांकना चाहिए।
मुझे जो लगा, वह मैंने कह दिया। क्या आप लोगों को लगता है कि मैंने कुछ गलत कहा। मेरा किसी न्यूज़ चैनल या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से कोई बैर नहीं... और न ही इनके खिलाफ हूं, बस मुझे लगता है कि इन्हें ब्रेकिंग न्यूज़ या ताजा खबर परोसने का अंदाज़ मुख्तलिफ रखना चाहिए। मीडिया का काम लोगों को जागरूक करना है, उन्हें डराना नहीं... क्योंकि मीडिया जिस अंदाज़ में न्यूज़ परोसेगी, लोग उसी अंदाज़ में देखेंगे और अपनी ज़िन्दगी से जोड़ने की कोशिश करेंगे। वैसे आज भी कुछ न्यूज़ चैनल हैं, जो सचमुच लोगों को जागरूक करने का काम कर रहे हैं...
Wednesday, August 27, 2008
Why Theater ????
As a theather artist it's my simple thought...what is Future of a theater artist in our country.there is no money ,no glamour & no future...how can a theater artist live
life without these things Or cinema is last option !!!!
life without these things Or cinema is last option !!!!
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