Monday, October 20, 2008

शॉट्स, बाइट्स, आतंकवाद और मैं.

वर्ष 2003 में, मैंने मुंबई में एक के बाद एक हुए धमाके, 2006 के ट्रेन धमाके फिर 2006 में ही मालेगांव और फिर उसके बाद का धमाकों का सिलसिला देखा है। बार-बार तबाही देखी है।
न सिर्फ हर बार मौत देखनी पड़ती है बल्कि उससे भी ज़्यादा दर्दनाक उन लोगों की कहानियां होती हैं जो इनसे बच तो जाते हैं लेकिन या तो बुरी तरह जलकर या फिर हाथ-पैर खोकर। और, फिर ऐसे में उनके परिवारवालों से बात करना। पूछें तो क्या पूछें?
सबसे ज़्यादा तो परेशानी इस बात की होती है कि हमारा मज़ाक उस एक लाइन के साथ बनाया जाता है कि आपको कैसा लग रहा है। खैर अब तो यह मज़ाक भी पुराना पड़ चुका है।
अहमदाबाद धमाकों में घायल हुए 6 साल के यश के बारे में जानने जब मैं पहुंचा तब वो सोया हुआ था। करीब 60 फीसदी जल चुका था। मेरे सामने उसे होश आया और जब वो उठा तो पहले अपने बड़े भाई के बारे में पूछा, फिर दर्द से कराहता हुआ पानी मांगने लगा। लेकिन, उसे कुछ भी खाने-पीने की मनाही थी।
उसके छोटे-छोटे हाथ जले हुए थे और उन पर फफोले पड़ चुके, उस दिन मैं भी रोया। हालांकि उस वक्त तक उसकी मां ने एक आंसू का बूंद नहीं बहाया था जबकि उसे पता था कि उसके दोनों बेटे बुरी तरह जले हुए है और पति धमाकों में मारा जा चुका है। यश का भाई भी दो दिन बाद चल बसा।
इस बीच, जांच कहां-कहां पहुंची इसकी पड़ताल करनी होती है। वहीं पुलिस जिन्हें हम गला फाड़-फाड़ कर निकम्मा कह रहे होते हैं, उन्हीं के अधिकारियों से विनम्रता के साथ पूछना होता है, कैसे हैं सर?
वो निकम्मा नहीं हैं, वो भी मेहनत कर रहे हैं। मैंने उनके चेहरे पर भी दर्द और हताशा देखी है। हर ऐसी वारदात उनके चेहरे पर थप्पड़ सा होता है। कई अधिकारियों से इतना तक कहा कि वो जांच में इसलिए मेहनत नहीं करना चाहते कि उन्हें कम्युनल न करार दे दिया जाए और फिर बाद में उन्हें इसकी सज़ा मिले। विडंबना यह भी है कि आला अधिकारी अपने खुद की राजनीति में फंसे हैं। एक विभाग दूसरे को नीचा दिखाने में लगा है।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि गिरफ्तारियों पर सवाल नहीं होना चाहिए। सवाल खड़े करना चाहिए। लेकिन, शायद कुछ, धीरज के साथ। यहां गिरफ्तारी हुई नहीं कि वहां सवाल शुरू हो गए। सवाल तो शहादत पर भी खड़े कर दिए गए हैं।
अगर, मैं धमाकों से किसी भी तरह जुड़ा नहीं होता तो शायद पुलिस के निकम्मेपन नेताओं की बयानबाज़ी और मीडिया की सनसनी भरी खबरों को गाली देता, लेकिन मैं एक रिपोर्टर हूं और चाहकर भी बातों से अपने आप को दूर नहीं कर सकता।
एकबार तो मांस के लोथड़े के बीच खड़ा था तब किसी दोस्त का फोन आया था। क्या हम खाने पर जा सकते हैं? मुझे याद है मैंने नीचे झुक कर उस लोथड़े को देखा और फिर अपने दोस्त से कहा कि वो खाना आफिस में मंगवा ले।
इस बार, जब दिल्ली में धमाके हुए तो मेरा बड़ा भाई वहीं था। उसने फोन पांचवें रिंग में उठाया और न जाने उतनी देर में मैंने क्या-क्या सोच लिया। वो ठीक है यह सोचकर राहत तो हुई लेकिन बाद में अपने स्वार्थ पर शर्म आई कि आखिर किसी और ने तो भी अपना कोई खोया है।
मैं जब भी ऐसे किसी हादसे की रिपोर्टिंग करने जाता हूं तो मेरे सामने बार-बार यह सवाल आता है, कि क्या मैं उन लोगों की मदद करूं जिन्हें उसकी ज़रूरत है या फिर रिपोर्टर बन कर अपना काम करूं।
क्योंकि, मुझे तो कहानियां तो देनी होती हैं, शॉट्स भेजने होते हैं, बाइट लेनी होती है और लाइव तो 'मिस' होना ही नहीं चाहिए।
This column is written by shalender mohan from NDTV and it’s my personal view that any one who belongs from media field should read it…

2 comments:

Nitin Sabrangi said...

moot ko najdek sey dhekna asan nahi hota. mey khud moot sey rubru hua hu. 2 sal phaley meerut key vektoreya park agnikand ko mey zindgi mey nahi bhool sakta. un to reporting mey mujhe 8 sal ho gaye. kai vebhats ghatnawo ka sakhi hua hu. lekin agnekand mey maney logo key zism ko bhuney hue tukdo mey tabdil hotey dheka. wah bhut bhyanak tha. es kand ko lekhney mey meri nend bhi ud gai or davayea khakar kam karna pada. esvar sey asa hai ki dobara yse ghatna ki reporting ka moka na mele. es hadsey ka ha saks khud me dard ka dareya hai. Nitin Sabrangi. Journalist and writer. Meerut.

Kavi Pankaj Prasun said...

hi praveen,
agar mai confuse nahin kar raha hoon to tum vahi praveen ho jo meere sath antaragni kanpur me participate kiya tha.
mai Pankaj hoon yar 3 prize jeetne vala.
Aaj I next me tumhara article para. badiya hai.
mai bhi I-next me vyangya ka column likh raha hoon.Khoob kahi.
kal parna