अम्मा : एक कथा गीत
थोड़ी थोड़ी धूप निकलती थोड़ी बदली छाई है
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!
शॉल सरक कर कांधों से उजले पाँवों तक आया है
यादों के आकाश का टुकड़ा फटी दरी पर छाया है
पहले उसको फ़ुर्सत कब थी छत के ऊपर आने की
उसकी पहली चिंता थी घर को जोड़ बनाने की
बहुत दिनों पर धूप का दर्पण देख रही परछाई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!
सिकुड़ी सिमटी उस लड़की को दुनिया की काली कथा मिली
पापा के हिस्से का कर्ज़ मिला सबके हिस्से की व्यथा मिली
बिखरे घर को जोड़ रही थी काल चक्र को मोड़ रही थी
लालटेन-सी जलती-बुझती गहन अंधेरे तोड़ रही थी
सन्नाटे में गूँज रही वह धीमी-सी शहनाई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!
दूर गाँव से आई थी वह दादा कहते बच्ची है
चाचा कहते भाभी मेरी फूलों से भी अच्छी है
दादी को वह हँसती-गाती अनगढ़-सी गुड़िया लगती थी
छोटा मैं था- मुझको तो वह आमों की बगिया लगती थी
जीवन की इस कड़ी धूप में अब भी वह अमराई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!
नींद नहीं थी लेकिन थोड़े छोटे-छोटे सपने थे
हरे किनारे वाली साड़ी गोटे-गोटे सपने थे
रात रात भर चिड़िया जगती पत्ता-पत्ता सेती थी
कभी-कभी आँचल का कोना आँखों पर धर लेती थी
धुंध और कोहरे में डूबी अम्मा एक तराई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!
हँसती थी तो घर में घी के दीए जलते थे
फूल साथ में दामन उसका थामे चलते थे
धीरे धीरे घने बाल वे जाते हुए लगे
दोनों आँखों के नीचे दो काले चाँद उगे
आज चलन से बाहर जैसे अम्मा आना पाई है!
पापा को दरवाज़े तक वह छोड़ लौटती थी
आँखों में कुछ काले बादल जोड़ लौटती थी
गहराती उन रातों में वह जलती रहती थी
पूरे घर में किरन सरीखी चलती रहती थी
जीवन में जो नहीं मिला उन सबकी माँ भरपाई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!
बड़े भागते तीखे दिन वह धीमी शांत बहा करती थी
शायद उसके भीतर दुनिया कोई और रहा करती थी
खूब जतन से सींचा उसने फ़सल फ़सल को खेत खेत को
उसकी आँखें पढ़ लेती थीं नदी नदी को रेत रेत को
अम्मा कोई नाव डूबती बार बार उतराई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!
- सुधांशु उपाध्याय
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Monday, March 23, 2009
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